माँ, बेटी और बहन

वो सहमी थी घूरती निगाहों से पर चेहरे पर सिकन ना आने दी डर को कोई समझ ना ले “कमजोरी” ये बात ज़हन से ना जाने दी क्यों हक है उन भेड़ियों को नज़रों से इज़्ज़त चीरने का ये मैंने तो नहीं दिया छोड़ो… सिर्फ़ देखा ही तो है कुछ किया तो नहीं कहकर इसको ज़रा सी बात बना दिया मैं औरत हूँ ना समझती हूँ उन नज़रों को जो मेरी तरफ़ उठती हैं छठीं इंद्री मेरे पास है जो ईश्वर ने सिर्फ़ महिलाओं को दी है क्यों नहीं सिखाया जाता? उन निगाहों को नोचना जो उसकी “आत्मा” को छलनी करती हैं क्यों सिखाया जाता है “सहना” जब “माँ, बेटी, बहन” तो सबकी हैं…